Landmark court judgments in murder cases in India-उधमपुर के एक छोटे से गांव में 27 अक्टूबर, 2012 की सुबह एक दर्दनाक घटना घटी थी। मान चंद पर आरोप था कि उसने अपनी पत्नी कांता देवी पर पहले दरांती से हमला किया, फिर मिट्टी का तेल डालकर आग के हवाले कर दिया। निचली अदालत ने 2015 में उसे उम्रकैद की सजा सुनाई। लेकिन इस घटना के 13 साल बाद, जम्मू-कश्मीर और लद्दाख उच्च न्यायालय ने इस मामले में एक नया मोड़ ला दिया।
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गवाहियों में उलझी सच्चाई
न्यायमूर्ति शहजाद अजीम और सिंधु शर्मा की खंडपीठ ने अभियोजन पक्ष की गवाहियों को लेकर गंभीर सवाल उठाए। कोर्ट ने कहा, “अगर किसी पर इस तरह का भीषण हमला होता, तो वह शोर मचाता, संघर्ष करता और भागने की कोशिश करता।” लेकिन केस की फाइल में ऐसे किसी संघर्ष या शोर का उल्लेख नहीं मिला। यह मानवीय व्यवहार के विपरीत था, जिससे अभियोजन की कहानी संदेहास्पद हो गई।
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गवाह-1 देस राज की भूमिका
मृतका के भाई देस राज, जिनकी उम्र घटना के समय 17 वर्ष थी, ने अदालत में दावा किया कि उन्होंने पूरी वारदात अपनी आंखों से देखी। मगर, उनकी लिखित शिकायत (Exhibit P1) और अदालत में दिए गए बयान में भारी विरोधाभास था। एक जगह लिखा था कि बिस्तर में आग लगाई गई, दूसरी जगह कहा गया कि सीधे कांता देवी पर मिट्टी का तेल डालकर आग लगाई गई। ऐसे विरोधाभासों ने केस की नींव को हिला दिया।
फोरेंसिक और मेडिकल जांच पर सवाल
मामले का पोस्टमार्टम किसी अस्पताल में नहीं, बल्कि पीड़िता के घर पर किया गया था। डॉक्टर ने रिपोर्ट 22 दिन बाद तैयार की और हथियारों की जांच भी नहीं की गई। फोरेंसिक विशेषज्ञ ने अदालत में स्वीकार किया कि दरांती जैसी खुरदरी सतह से स्पष्ट उंगलियों के निशान मिलना संभव नहीं है। डॉक्टर को कथित हथियार कभी दिखाए भी नहीं गए। इससे पोस्टमार्टम रिपोर्ट की विश्वसनीयता पर भी सवाल उठे।
चश्मदीद गवाहों की गैरमौजूदगी
अभियोजन पक्ष ने अपने सबसे अहम गवाह राजिंदर कुमार और चौकीदार मनसा राम को अदालती प्रक्रिया में पेश ही नहीं किया। अदालत ने इसे गंभीर चूक माना। साथ ही, यह भी पूछा गया कि यदि घटना में ढाई साल का बच्चा भी झुलसा था, तो उसे तत्काल चिकित्सा क्यों नहीं दी गई और उसकी गवाही क्यों नहीं ली गई?
गिरफ्तारी और एफआईआर में विरोधाभास
जांच अधिकारी ने बताया कि मान चंद को 29 अक्टूबर को गिरफ्तार किया गया, जबकि आरोपी और पीड़िता की बहन ने कहा कि वह 27 अक्टूबर से ही हिरासत में था। पुलिस ने एफआईआर मजिस्ट्रेट को भेजने में भी देरी की, जिसका कोई संतोषजनक कारण नहीं दिया गया। सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों के अनुसार, ऐसी देरी अभियोजन की कहानी को कमजोर करती है।
अभियोजन की कहानी में दरारें
अदालत ने पाया कि अभियुक्त अकेले ही 2-3 घंटे तक अपनी पत्नी पर हमला करता रहा, जबकि मृतका के भाई को नीचे गिरा दिया गया—यह स्वाभाविक मानवीय व्यवहार के बिल्कुल विपरीत है। महिला ने न तो विरोध किया, न ही मदद के लिए चिल्लाई। अदालत ने लिखा, “यह स्वाभाविक मानवीय व्यवहार के बिल्कुल विपरीत है।”
न्याय का नया दृष्टिकोण
कोर्ट ने अपने 43 पन्नों के फैसले में कहा कि अभियोजन पक्ष अपराध के लिए कोई ठोस उद्देश्य साबित नहीं कर सका। गवाहियों, मेडिकल रिपोर्ट, फोरेंसिक साक्ष्य और पुलिस प्रक्रिया में इतनी खामियां थीं कि न्यायालय का विश्वास अभियोजन की कहानी पर नहीं बन पाया। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व के निर्णयों का हवाला देते हुए कोर्ट ने कहा कि अभियुक्त को दोषी ठहराने के लिए संदेह से परे सबूत जरूरी हैं, जो इस मामले में नहीं मिले।
समाज के लिए संदेश
यह फैसला न केवल एक व्यक्ति की जिंदगी को प्रभावित करता है, बल्कि न्याय व्यवस्था में भरोसे की कसौटी भी है। अदालत ने स्पष्ट किया कि किसी भी आपराधिक मामले में गवाहियों की विश्वसनीयता, मेडिकल और फोरेंसिक साक्ष्य तथा पुलिस की निष्पक्षता सर्वोपरि है। यदि इनमें कहीं भी संदेह की गुंजाइश रह जाती है, तो न्यायालय का कर्तव्य है कि वह आरोपी को संदेह का लाभ दे।
निष्पक्ष न्याय की मिसाल
मान चंद को बरी करने का यह फैसला बताता है कि भारतीय न्यायपालिका केवल भावनाओं या सामाजिक दबाव में नहीं, बल्कि तथ्यों और सबूतों के आधार पर निर्णय लेती है। यह केस न्याय की उस बारीक रेखा को उजागर करता है, जहां एक ओर अपराध के खिलाफ सख्ती है, तो दूसरी ओर निर्दोष को गलत सजा से बचाने की संवेदनशीलता भी।