जबलपुर-मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने हाल ही में एक ऐसे मामले में महत्वपूर्ण फैसला सुनाया, जिसने देशभर में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और उसकी सीमाओं पर नई बहस छेड़ दी है। इंदौर के चर्चित कार्टूनिस्ट हेमंत मालवीय की अग्रिम जमानत याचिका, जिसमें उन पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर “अशोभनीय” व्यंग्य चित्र बनाने का आरोप था, अदालत ने खारिज कर दी। यह फैसला न केवल न्यायिक विवेक का उदाहरण है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के साथ जिम्मेदारी भी जुड़ी हुई है।
अदालत की सख्ती
न्यायमूर्ति सुबोध अभ्यंकर की एकल पीठ ने अपने आदेश में स्पष्ट किया कि मालवीय ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दुरुपयोग किया और विवादित कार्टून बनाते समय विवेक का पालन नहीं किया। अदालत ने कहा कि ऐसे मामलों में कलाकार की जिम्मेदारी और सामाजिक मर्यादा का ध्यान रखना आवश्यक है। न्यायालय ने यह भी निर्देश दिया कि मालवीय को हिरासत में लेकर पूछताछ की जाए, जिससे मामले की गहराई से जांच हो सके।
वकीलों की दलीलें
मालवीय के वकील ने अदालत में दलील दी कि उनका कार्य व्यंग्यात्मक है, और उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देशों का उल्लंघन नहीं किया है। उनका कहना था कि लोकतंत्र में व्यंग्य और आलोचना की जगह है, और कलाकारों को अपनी बात कहने की स्वतंत्रता मिलनी चाहिए। दूसरी ओर, राज्य सरकार के वकील ने तर्क रखा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर आपत्तिजनक चित्रण की अनुमति नहीं दी जा सकती। उन्होंने कहा कि किसी भी विचार या संस्था के प्रति अपमानजनक या अशोभनीय चित्रण समाज में अशांति फैला सकता है, जिसे कानून कतई बर्दाश्त नहीं कर सकता।
न्यायालय का संतुलन
अदालत ने दोनों पक्षों की दलीलों को सुनने के बाद कहा कि मालवीय ने जिस प्रकार का कार्टून बनाया, वह अपराध की प्रवृत्ति को दर्शाता है। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता निरपेक्ष नहीं है; उसकी भी सीमाएँ हैं, और जब कोई व्यक्ति समाज की संवेदनाओं को ठेस पहुँचाने वाला कार्य करता है, तो कानून को हस्तक्षेप करना ही पड़ता है। इसी आधार पर मालवीय की अग्रिम जमानत याचिका खारिज कर दी गई।
लोकतंत्र में व्यंग्य की भूमिका
भारतीय लोकतंत्र में व्यंग्य और आलोचना की परंपरा रही है। कार्टूनिस्ट, लेखक और कलाकार समाज की विसंगतियों और सत्ता के दुरुपयोग पर अपनी कलम और चित्रों के माध्यम से चोट करते आए हैं। लेकिन जब यह व्यंग्य व्यक्तिगत या संस्थागत मर्यादा की सीमाओं का उल्लंघन करने लगे, तब सवाल उठता है कि स्वतंत्रता और जिम्मेदारी के बीच संतुलन कैसे साधा जाए। यह मामला उसी संतुलन की तलाश का उदाहरण बन गया है।
सोशल मीडिया युग में अभिव्यक्ति
आज के डिजिटल युग में सोशल मीडिया के माध्यम से विचारों का प्रसार बेहद तेज़ है। एक कार्टून या व्यंग्य चित्र कुछ ही मिनटों में लाखों लोगों तक पहुँच जाता है। ऐसे में कलाकारों और रचनाकारों की जिम्मेदारी और बढ़ जाती है कि वे अपनी रचनाओं के संभावित सामाजिक प्रभाव को समझें। अदालत का यह फैसला इसी संदर्भ में महत्वपूर्ण है कि रचनात्मक स्वतंत्रता के साथ-साथ सामाजिक जिम्मेदारी भी उतनी ही अहम है।
सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देश
सुप्रीम कोर्ट ने अपने कई फैसलों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लोकतंत्र की आत्मा बताया है, लेकिन साथ ही यह भी कहा है कि यह स्वतंत्रता निरंकुश नहीं है। संविधान के अनुच्छेद 19(2) के तहत राज्य को यह अधिकार है कि वह सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता, नैतिकता, या किसी व्यक्ति की मानहानि के आधार पर इस स्वतंत्रता पर उचित प्रतिबंध लगा सके। मध्य प्रदेश हाईकोर्ट का यह फैसला इन्हीं संवैधानिक प्रावधानों की व्याख्या करता है।