भारतीय न्यायपालिका में कभी-कभी ऐसे फैसले सामने आते हैं, जो पूरे देश की कानूनी समझ और न्याय की प्रक्रिया पर सवाल खड़े कर देते हैं। 5 अगस्त 2025 को सुर्ख़ियों में आया सुप्रीम कोर्ट का कड़ा रुख इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक आदेश पर रहा, जिसे सर्वोच्च अदालत ने “न्याय का मज़ाक” और अपने करियर का “अब तक का सबसे ख़राब आदेश” बताया। आखिर ऐसा क्या हुआ कि सुप्रीम कोर्ट को इतनी तीखी प्रतिक्रिया देनी पड़ी?
आदेश जिसने सबको चौंका दिया
इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक जज ने एक व्यापारिक लेन-देन से जुड़े मामले में, जिसमें पैसे की वसूली का सवाल था, उसे नागरिक विवाद मानने के बजाय फौजदारी (क्रिमिनल) कार्रवाई को आगे बढ़ाने की अनुमति दे दी। जबकि यह स्पष्ट था कि मामला पूरी तरह सिविल श्रेणी का था, हाईकोर्ट के जज ने कहा—यदि शिकायतकर्ता को सिविल कोर्ट का रुख करने को कहा जाए, तो उसमें समय और खर्च अधिक होगा। इस आधार पर फौजदारी प्रक्रिया कराने को जायज ठहरा दिया गया।
सुप्रीम कोर्ट की तगड़ी फटकार
सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ ने इस फैसले की बेहद कठोर शब्दों में आलोचना की। अदालत ने टिप्पणी की कि “जज ने खुद की छवि को ही नहीं, बल्कि न्याय व्यवस्था को भी मजाक बना डाला। ऐसे बेहूदा और गलत आदेश देना क्षमा योग्य नहीं है। हम समझने में असमर्थ हैं कि उच्च न्यायालय की कार्यशैली में आखिर गड़बड़ी कहां है”।
“अब तक का सबसे ख़राब आदेश”
जस्टिस जे.बी. पारड़ीवाला और जस्टिस आर. महादेवन की पीठ ने लिखा—“यह ऐसा आदेश है, जैसा हमने अपने करियर में नहीं देखा। कभी-कभी शक होता है कि ये आदेश बाहरी दबाव में दिए जाते हैं या फिर कानून का अज्ञान कारण होता है। जो भी वजह हो, इतने गलत और हास्यास्पद आदेश देना अक्षम्य है”।
न्यायिक संतुलन और ज़िम्मेदारी
सुप्रीम कोर्ट ने दो टूक कहा कि किसी भी सिविल विवाद को फौजदारी तरीके से नहीं निपटाया जा सकता। कोर्ट की नजर में, यह आदेश न्याय प्रक्रिया का दुरुपयोग था, जिसे बिल्कुल भी बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। साथ ही हाईकोर्ट के संबंधित जज को रिटायरमेंट तक कोई भी क्रिमिनल केस सुनने से रोक दिया गया और सिर्फ वरिष्ठ जज की अगुवाई में ही बेंच में बैठने को कहा गया।
कानून की गरिमा या उसकी उपेक्षा?
कोर्ट ने यह भी कहा कि कानून सबके लिए बराबर है और उसकी समझ तथा उसे लागू करने की जिम्मेदारी जज की है। कोई भी अनावश्यक और कानून से इतर पाए गए फैसले पूरी व्यवस्था के लिए खतरा हैं, क्योंकि इससे आम लोगों का न्याय व्यवस्था पर भरोसा घटता है। सुप्रीम कोर्ट ने इस पूरे मामले को न केवल हाईकोर्ट के भीतर बल्कि संपूर्ण न्यायपालिका के लिए चेतावनी की तरह पेश किया है।
समाज पर असर
ऐसी कड़ी टिप्पणियां और अनुकरणीय दंड न्यायिक प्रक्रियाओं को पारदर्शी और जवाबदेह बनाती हैं। सुप्रीम कोर्ट का रुख न केवल तत्कालीन मामले के लिए, बल्कि भावी मामलों के लिए भी मार्ग दिखाता है कि न्याय व्यवस्था में कोई लापरवाही या अज्ञानता क्षम्य नहीं है। ऐसी टिप्पणियाँ भारतीय न्यायपालिका में विश्वसनीयता और असली न्याय के महत्व को लगातार सशक्त करती हैं।